HomeCinemaNews

लता मंगेशकर और आशा भोसले पर भी लग चुके हैं खेमेबाजी के आरोप

[ad_1] पुनः संशोधित

Father’s Day particular: Sumeet Vyas says his son ought to develop as much as be formidable, however grateful – bollywood
Sushant Singh Rajput’s dying sparks a debate: Is acceptance in Bollywood nonetheless a battle for TV stars? – bollywood
I by no means actually had a plan: Cyrus Sahukar – bollywood

[ad_1]







पुनः संशोधित शनिवार, 20 जून 2020 (06:45 IST)


की आत्महत्या के पीछे का कारण खोजने में पुलिस जुटी हुई है, लेकिन कुछ लोगों ने तो निर्णय ही सुना डाला है।

उनका मानना है कि सुशांत सिंह राजपूत की खेमेबाजी के कारण परेशान थे। कुछ लोग उन्हें आगे नहीं बढ़ने देना चाहते थे इससे परेशान होकर उन्होंने यह कदम उठाया।


यह बात सही भी हो सकती है और गलत भी, लेकिन इसने बॉलीवुड में खेमे बाजी और परिवारवाद पर बहस छेड़ दी है।

इस आग में ने यह कह कर घी डाल दिया है कि फिल्मों से ज्यादा खेमेबाजी और नए गायकों-संगीतकारों की राह में रूकावट डालने का काम तो म्यूजिक इंडस्ट्री में होता है।


उन्होंने इसे म्यूजिक माफिया करार देते हुए कहा है कि हो सकता है कि जल्दी ही संगीत की दुनिया से आत्महत्या की खबरें सामने आने लगे।


फिल्म इंडस्ट्री में संगीत के क्षेत्र में एक खास कंपनी की तूती बोलती है। इसी के आधार पर गायक और संगीतकार का चयन किया जाता है।


जो सांचे में फिट बैठते हैं उन्हें काम मिलता है और बाकी प्रतिभाशाली होने के बावजूद बेकार बैठे रहते हैं। हालांकि दूसरी ओर ये बात भी सही है कि पिछले दस-पंद्रह सालों में जितने नए गायक और संगीतकार आए हैं उतने पहले कभी नहीं देखे गए।


पहले गिनती के संगीतकार, गायक और गीतकार थे। इनकी टीम थी जिसे ‘खेमेबाजी’ भी कहा जाता था। दरअसल एक गीतकार, संगीतकार और गायक लगातार साथ काम करते हुए एक-दूसरे के साथ आरामदायक महसूस करते हैं। थोड़े कहे में ही अधिक समझ जाते हैं जिससे काम में आसानी होती है।


यही कारण रहा कि शैलेंद्र, शंकर-जयकिशन, मुकेश और राजकपूर की टीम बनी। सचिन देव बर्मन और आरडी बर्मन ने किशोर कुमार से ज्यादा गाने गवाए। नौशाद और रफी की टीम बनी।


फिल्म के स्टार की पसंद भी इसमें शामिल हो गई। दिलीप कुमार की फिल्मों में अक्सर नौशाद का संगीत रहता था तो राज कपूर की फिल्मों में शंकर-जयकिशन और देवआनंद की फिल्मों में सचिन देव बर्मन।


राज कपूर के लिए मुकेश स्वर देते थे, दिलीप के लिए रफी तो देवआनंद के अधिकांश गाने किशोर ने गाए हैं।


इसी तरह राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के ज्यादातर गाने किशोर कुमार ने गाए। कई बार ये स्टार अपने निर्माता से कह भी देते थे कि फिल्म में इससे गीत गवाओ।


इस तरह से गुट बन गए। जो गुट का हिस्सा नहीं थे उन्हें प्रतिभाशाली होने के बावजूद ज्यादा अवसर नहीं मिले। अवसर मिले तो बड़ी फिल्मों में नहीं मिले। जयदेव, सलिल चौधरी प्रतिभा में कम नहीं थे, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में इन्हें समुचित अवसर नहीं मिले।

गायिकाओं में बरसों बरस तक और आशा भोसले का एकाधिकार रहा। इनके अलावा कोई गायिका उभर नहीं पाई।


लता ने जब फिल्मों में गाना शुरू किया तो सुरैया, नूरजहां, गीता दत्त जैसी गायिकाओं का बोलबाला था। जैसे ही इन गायिकाओं की चमक कम हुई और लता-आशा ने अपनी जगह बनाई तो फिर बरसों-बरस आधिपत्य रहा।


मंगेशकर सिस्टर्स के होते हुए कोई भी गायिका चमक नहीं पाई और अक्सर कहा जाता था कि मंगेशकर बहनों ने किसी भी गायिका को जमने नहीं दिया।


हालांकि ये सिर्फ बातें हैं और इस बात का कोई ठोस सबूत भी नहीं है। इक्का-दुक्का अवसर या दबे स्वरों में ही ये सब फुसफुसाहट हुई।


पुरुष गायकों में मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और मुकेश का दबदबा रहा। इसके बाद कुमार सानू और उदित नारायण छा गए।


इन सबके होते हुए नए गायकों, संगीतकारों और गीतकारों को अवसर कम मिले। इसे ‘खेमेबाजी’ जरूर कहा जा सकता है, लेकिन हालात वर्तमान की तरह इतने गंदे नहीं हुए थे।


इस समय फिल्म संगीत के क्षेत्र में एक खास कंपनी का दबदबा है और उसी की चल रही है। उससे पंगा लेने की हिम्मत किसी में नहीं है चाहे वो स्टार्स हो या फिल्म बनाने वाले निर्माता।


लिहाजा संगीत का स्तर भी नीचे आ गया है और गैर प्रतिभाशाली लोगों को अवसर मिल रहे हैं और प्रतिभाशाली लोग बेकार हैं।

.

[ad_2]