[ad_1] बेहद साधारण कहानी अखूनी की कहानी बिल्कुल साधारण है। मीनम (नागालैंड की रहने वाली एक लड़की) अपने IAS का फाइनल इंटरव्यू देने गई है और शाम को
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बेहद साधारण कहानी
अखूनी की कहानी बिल्कुल साधारण है। मीनम (नागालैंड की रहने वाली एक लड़की) अपने IAS का फाइनल इंटरव्यू देने गई है और शाम को उसकी शादी है। उसके दोस्त उसकी शादी को खास बनाने के लिए अखूनी बनाने का प्लान करती है। लेकिन इस प्लान को सफल करने के बीच एक नॉर्थ ईस्ट से आए व्यक्ति को क्या क्या सुनना पड़ता है, यही पूरी फिल्म का सार बनती है।
एक दिन में इतनी दिक्कतें
ये फिल्म सीधे तौर पर उत्तर पूर्वी राज्यों से आए लोगों के प्रति हमारे बर्ताव पर एकदम साफ कटाक्ष करता है। जब हम उनकी आंखों पर, उनकी भाषा पर, उनके रंग रूप पर और तमाम चीज़ों पर कटाक्ष करते हैं तो उन्हें कैसा लगता है। दिलचस्प है कि ये सारी चीज़ें फिल्म में एक ही दिन में होंगी और आपको अजीब नहीं लगेगा। ये सारी चीज़ें इतनी नॉर्मल हैं।
कुछ दोस्तों की कहानी
फिल्म दिल्ली के एक मोहल्ले की कहानी है जहां नॉर्थ ईस्ट से आकर रहने वाले और नौकरी करने वाले लोग रहते हैं। इन सबकी अपनी अपनी दिक्कतें हैं। लेकिन मुख्य दिक्कतें दिखाई है चार किरदारों के साथ। चानबी (लिन लाइशराम), उपासना (सयानी गुप्ता) और उनके बॉयफ्रेंड्स बेनदांग (लानूकम ओ) और ज़ोरेम (टेनज़िंग दाल्हा)। ये सारी दिक्कतें इतनी आम है कि आपको दिक्कत लगेगी ही नहीं। लेकिन जब आप ये फिल्म में देखेंगे तो आप कुछ चीज़ें सोचने पर मजबूर ज़रूर हो जाएंगे।
बैलेंस के साथ बनी फिल्म
अखूनी बहुत ही शानदार तरीके से बैलेंस बनाकर चलती है। एक तरफ जहां उत्तर पूर्वी से आए समुदायों पर हमारे बर्ताव को दिखाती है तो वहीं दूसरी तरफ हमारे ही बीच के एक लड़के शिव (रोहन जोशी) और मकान मालिक गजेंदर चौहान (विनय पाठक) को इनकी मदद करते भी दिखाती है।
आपस में भेदभाव
फिल्म में उपासना के किरदार को नेपाली दिखाकर डायरेक्टर ने बड़े ही करीने से नॉर्थ ईस्ट के लोगों का आपस में भी एक दूसरे के प्रति भावनाओं को सामने लाने की खूबसूरती से कोशिश की है। नॉर्थ ईस्ट लोगों के बीच में अपनी जगह ढूंढती एक नेपाली, उपासना का किरदार सयानी गुप्ता बेहतरीन तरीके से निभाती दिखती हैं।
किस हद तक जाते हैं दोस्त
कुछ दोस्त अपनी दोस्त की शादी को खास बनाने के लिए किस हद तक जा सकते हैं, सारी परेशानियों के बीच फिल्म इस मुख्य कड़ी को कहीं भी, कभी भी हाथ से जाने नहीं देती है। अखूनी के साथ पोर्क हर जगह पकाने की कोशिश की जाती है। आखिरी में क्या ये पक पाता है या नहीं ये देखना फिल्म का मुख्य हिस्सा है।
किरदार
फिल्म के सहयोगी किरदारों ने इसे मज़बूत बनाने में पूरा सहयोगा दिया है। डॉली अहलूवालिया ये करो, वो ना करो वाली मकान मालकिन के रूप में बेहतरीन दिखती हैं तो वहीं विनय पाठक छोटी सी भूमिका में दिल जीत ले जाते हैं। कहानी में आदिल हुसैन भी हैं लेकिन क्यों हैं ये कोई नहीं समझ पाता है।
तकनीकी पक्ष
नॉर्थ ईस्ट की छोटी छोटी परंपराओं, भाषाओं, संस्कार, रिवाज़ों सबको ये फिल्म छोटे से समय में बेहद सफाई से समेटने की कोशिश करने में सफल होती है। वहीं दिल्ली की तंग गलियों में बसे इन समुदायों को पाराशर बरूआ का कैमरा शानदार तरीके से दिखाता है।
अच्छे हैं डायलॉग्स
फिल्म के डायलॉग्स बिल्कुल साधारण हैं और शायद इसलिए अच्छे हैं। सभी कलाकार, उत्तर पूर्वी राज्यों की भाषाओं को बखूबी निभाते दिखते हैं। वहीं बीच में हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच सामंजस्य बिठाते दिखते हैं। बेनदांग के किरदार (पेशे से म्यूज़िशियन) को अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी गानों के साथ जूझना बेहद मार्मिक दिखता है।
दिल छू लेने वाले पल
क्या कभी आपने सोचा है कि अपनी पसंद का खाना बनाना इतना मुश्किल भरा काम हो सकता है? कि आपको खाना बनाने के लिए चोरी करनी पड़े? अगर ऐसा महसूस नहीं किया तो ये फिल्म आपके लिए ज़रूरी है। हम सबके लिए ज़रूरी है।क्लाईमैक्स में सभी का एक साथ बॉलीवुड के गाने गाना आपके चेहरे पर भी मुस्कुराहट लाएगा। कुल मिलाकर इस फिल्म को आप केवल इसलिए देखिए क्योंकि उत्तर पूर्वी राज्यों पर हमने ना फिल्में बनाई हैं और ना देखी हैं।
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